Tuesday, September 29, 2015

दरख्त एक रेगिस्तान का,

वो दरख्त था एक रेगिस्तान का, 

रेतीली हवाओं के बीच खड़ा मदमस्त सा,

 तपिश सूरज की सह कर भी, 

थपेड़े गर्म हवाओं के सह कर भी मदमस्त था ,

जाने को जहाँ,इंसान भी हजार बार सोचता था

जिन  राहों में कदम बढ़ाने को जहाँ हर कोई कतराता था ,

हर रोज एक टहनी को फैलाते हुए वो दरख्त था मदमस्त सा ,

भीतर की खलिश को  न अपने पत्तों पर भी न आने देता,

सूख रही थी टहनियां तेज आंधियों से फिर भी,

मिटने न दे रहा था फिर भी अपने अस्तित्व को दरख्त वो मदमस्त सा,

रोज एक न जाने कहाँ एक पंक्षी से आकर बैठ उस दरख्त पर गया ,

सवाल अनेकों उमड़ रहे थे उसकी आँखों में,

थोड़ा सा दम भर पूछा  जो उसने उस दरख्त से,

क्यों यहाँ बियाबान, वीरान सी धरा पर हो अकेले तुम,

क्यों सहते हो तपिश इस रेगिस्तान की, 

है कौन यहाँ जिसको है जरूरत तुम्हारी ,

एक मौन छाया दो पल को उस  रेगिस्तान में,

निगाहों में मुस्कुराहट थी उस दरख्त की, 

 जुबां पर ताले लग गए उस पंक्षी के,बोला जो दरख्त वो

तुमको है मेरी जरूरत है ऐ दोस्त मेरे 

न होता गर मैं इस सूनसान रेगिस्तान में,

उड़ते-उड़ते थक गए थे जब तुम,

पंखों से तुम्हारे जान सी निकल रही थी जब,

गर न होता मैं इस धरा पर, 

क्या इस गर्म, तपती रेत पर सुस्ताते तुम ,

मत सोच ऐ मेरे दोस्त इस जहाँ में,

कोई नही है  जिसके वजूद का न हो अस्तित्व यहाँ ,

बना है हर कोई हर किसी के लिए, हो अलग भले ही इस जहाँ में ॥

 

 


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