Wednesday, September 21, 2016

वक़्त हुआ है अब कुछ कर गुजरने को

बंद दरवाजों से आज फिर सिसकियाँ सुनाई पड़ रही  हैं,
फिर एक बार आतंक के शोर में चूड़ियों की खनक खो गयी है,
किसी के सर से फिर एक बार पिता का साया उठ गया है,
किसी पिता के काँधे पर फिर एक बेटे का शव जा रहा है,
आज फिर कुछ दरवाजों पर सन्नाटा बिखर गया है,
कब तक यूँ सड़कों पर शोर- शराबा मचता रहेगा,
क्या किसी को उनका दर्द भी नज़र आएगा,
जिसने न केवल खोया है लाल अपना,
पेट भरने का सहारा भी जिसका अब चला गया है,
अब तो आँखों के परदों को हटा लो,
सड़कों पर  उनके सम्मान को यूँ न रुसवा करो,
जो गए है उनके हिस्से की जिंदगी एक बार जी कर के तो देखो,
किसी अपने के खोने के अहसास को तो जी करके देखो,
शीश नवा दो अब उनको चरणों तले, लाल खोये हैं जिन्होंने अपने,
अब नहीं रहा समय आवाज़ बुलंद करने का ,
वक़्त हुआ है अब कुछ कर गुजरने को,
वक़्त हुआ है अब कुछ कर गुजरने को ॥ 




Friday, September 2, 2016

वक़्त इस कदर बदलता सा जा रहा है,

वक़्त इस कदर बदलता जा रहा है,
हर रिश्ता, रिश्तों से दूर होता जा रहा है,
चुपचाप अब तो फ़ोन से रिश्तों को निभाया जा रहा है,
जो दूर हो गए थे उनको कहीं यहाँ, कहीं वहां ढूँढा जा रहा है,
जो पास रिश्ते थे दूर उनको किया जा रहा है,
नहीं अब आता है वो छुटी वाला रविवार,
दो घडी धूप में बैठ गपशप का दौर ख़त्म से हो रहा है,
छतों की मुंडेर सूनी सी पड़ी रहती हैं, कोई पक्षी भी नज़र कम ही आता है,
बॉलकोनी से दोस्ती निभाई जाने लगी है,
कोई अपना सा लगने वाला पराया सा होता जा रहा है,
वो जो पराये थे न जाने कब अपने से लगने लगे हैं,
नानी- दादी की गोद में सर रख कहानियां सुनना,
बीते दौर का सपना सा होता जा रहा है,
दादा की ऊँगली थामे कोई बचपन पार्कों में नज़र अब आता नहीं है,
बचपन के कांधों पर किताबों का बोझ बढ़ता जा रहा है,
बचपन बंद कमरों में सिमट सा रहा है,
वक़्त इस कदर बदलता सा जा रहा है,