Sunday, November 6, 2016

पराया सा लगने लगा है

होड़ लग गयी है फैशन की कुछ इस तरह ज़माने में,
ढकने के लिए अब तन पर कपड़ों की जगह टैटू ने ले ली है,
शर्मो हाय ताक पर रख कर फ़टे कपड़ों को ही फैशन बना लिया है,
कहीं जीन्स घुटने से फटी फैशन में शुमार हो गयी है,
कहीं एक आस्तीन ही काटने का फैशन चल पड़ा है,
जिस देश में सीता, अहिल्या सी नारी हुई हैं,
नारी उस देश की तन ढंकने को अपमान समझने लग गयी है ,
कहने वालों के मुंह बंद करने को सड़कों पर उत्तर यूँ आती हैं,
मानों उनकी जेब से कुछ रूपये चुरा लिए गए हों,
गरीबी और अमीरी कपड़ों से नापी जाने लगी है,
जिसके तन पर कपडे हों पूरे वो ही अब गरीब कहलाने लगी है,
न जाने कब और कैसे संस्कृति तार- तार होने लगी है,
हाथों में जाम और मुंह में धुआँ, संस्कारों का नया सिलसिला चल पड़ा है,
कुछ कहने से पहले बुजुर्गों के मुंह थरथराने लग जाते हैं,
खुद अपने ही घर में नज़रबंद से वो होने लगे हैं,
ये कैसा देश हो रहा है, ये चलन शुरू हो गया है,
यहाँ सब कुछ पराया सा अब लगने लगा है ॥


Wednesday, November 2, 2016

indispire शून्य सा अस्तित्व

हाँ माना शून्य की खोज आर्यभट्ट ने की थी,
पर शून्य के बिना धरा पर क्या किसी का है अस्तित्व यहाँ,
धरती भी तो एक शून्य के आकार की तरह ही है गोल,
ज़ीरो की कहानी कुछ इस तरह लिखती हूँ मैं अपनी जुबानी,
नज़रों में था नगण्य (शून्य) सा अस्तित्व  मेरा,
बस सबकी खातिर जिंदगी जिए जा रही थी एक शून्य  की तरह,
सबकी नज़रों में थी खटकती सी मैं,
फिर भी खुद की आँखों से न टपकने दिया एक मोती मैंने,
मोती भी तो आकार में होता है एक शून्य की तरह,
अचानक एक रोज़ एक हवा का झोंका मेरे मन को महका सा गया,
शून्य से निकल खुद को हीरो बनाने का रास्ता यूँ दिखा गया,
खुद में छिपे हुनर को चमकाने का हुनर वो सिखा गया,
खुद को साबित करने की राह पर निकल पड़ी कुछ इस तरह,
जीरो को जीरो से हरा कर आज मैं खड़ी हूँ एक नायिका की तरह।
indispire