अधूरे सपनों की दास्ताँ
सपने कौन नहीं देखता, किसी के रह जाते अधूरे, कोई कर लेता पूरे अरमान,
कुछ ऐसी ही दास्ताँ है मेरे भी सपनों की अधूरी दास्ताँ,
अवसाद से भरी जरूर थी,पर मन में उत्साह अपार था,
रोशनी की किरण दिखाने वाला संग कोई अपना न था,
अपनों संग रहकर भी अपनों से तिरस्कृत थी मैं,
चाहा था खुद की एक अलग पहचान बनाऊंगी, जग मे अपना नाम करूँगी,
अभी कदम बढाया ही था, पंखों को फैलाया ही था,
धीरे-धीरे ही सही मंजिलों की ओर कदमों को बढाया ही था,
जलजला इस महामारी का कुछ इस तरह आया,
सपनों को छोडो यारों, वो तो अपनों को भी बहा ले गया,
अब कोई सपना न रहा, संग कोई अपना न रहा,
लडखडा कर इक बार फिर से खुद को सम्हालने में लग गयी हूँ मैं,
फिर इक बार अपने अधूरे सपनों को पूरा करने उठ खडी हुई हूँ मैं।
Hem lata srivastava
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