Saturday, June 21, 2014

कुआँ

दोस्तों, एक वो भी समय था जब हर जगह पानी के लिए केवल कुएं और तालाब होते थे।  धीरे-धीरे इंसान की काबिलियत बढ़ी और शहरों में नदी का जल साफ़ करके घरों में पाइप के द्वारा पानी पहुँचने लगा ,फिर पानी की कमी हुई तो पंप के द्वारा पानी का प्रेशर  बढ़ा लिया गया ,ऐसे ही बस कुओं को लोग भूलते जा रहे हैं ,अब तो गांव में भी जगह-जगह हैंडपंप लगा लिए गए कुछ तो सरकारी और कुछ अपने ही खर्च से ,वहां भी कुएं बस कहीं-कहीं ही दिखाई देते  हैं । 
कुओं का पानी श्रोतों के द्व्रारा निकलता है ,किसी-किसी कुएं में तो जल के कोइ श्रोत होते हैं ,कुओं में उत्तर कर साफ़ करने की भी व्यवस्था होती है ,साथ कई जगह तो कुओं को सुरक्षित रूप से ढक कर भी रखा जाता था।
और तालाबों की हालत तो कुओं से भी बदतर होती जा रही है ,जिस वर्ष पानी ठीक-ठाक बरस जाये तब तो तालाब में पानी दिख जाता है वरना तालाब भी बस सूखते ही जा रहे हैं । 
मुझे याद  है बचपन में हम जिस घर में रहते थे वहां भी एक कुआँ था और उसी से हम सभी पानी निकाल कर इस्तेमाल किया करते थे ,कितनी कसरत हो जाती थी पानी भरने और ऊपर लेकर आने में। जीवन के वो क्षण कभी नहीं लौट कर आते हैं ,आज यदि कोई ऐसे कुएं से पानी भरने को कह दे या फिर कहीं कुएं से पानी भरना भी पड़  जाये तो पहले ही बीमार पड़ने की चिंता सताने लग जाएगी । 
हिन्दुस्तान भर में कितने कुएं और तालाब थे इसका विवरण तो मालूम नहीं है पर हाँ आज में आप सबके साथ कुओं के बारे में एक रोचक बात शेयर करने जा रही हूँ -------

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले का नाम रायबरेली है जहाँ हमारा पैतृक घर है। उस शहर का नाम यूँ तो श्रीमती इंदिरा गांधी से जुड़ा है ,पर शायद ही किसी को ये मालूम होगा की रायबरेली में ही एक मोहल्ला है जिसका नाम किला बाजार है और वह एक बहुत बड़ा कुआँ था ,जो की अब नाम मात्र का रह गया है किताबों में शायद क्यूंकि मैं भी काफी समय से वहां गयी नहीं हूँ ,पर जिस समय वह कुआँ दिखता था वह सचमुच काफी बड़ा था ,कहा ये जाता था कि एक बार उस कुएं में इतना अधिक पानी बारिश के कारण बढ़ गया की पूरा शहर बाढ़ में डूबने सा लगा था तब इस कुएं को ८० ,मन के लोहे  के तवे से  ढक दिया गया या यूँ कहिये की इस कुएं में ८० मन का लोहे  का गोल चक्का डाल दिया गया जिससे इसका सारा पानी उसके नीचे दब गया ,हमें याद है हम जब भी रायबरेली जाते थे उस कुएं को देखने जरूर जाते थे। तब वहां अक्सर गाय,भैंस आदि घास चरते नज़र आते थे। 
कुओं के बारे में ऐसी मान्यता है कि कुछ कुएं ऐसे होते हैं जिनमें यदि कोई गिर जाये तो उनका पानी अपने आप ऊपर आ जाता है और गिरने वाले की जान का कोई नुक्सान नहीं होता है ,और कुछ कुएं ऐसे होते हैं कि जिनमें यदि कोई गिर जाये तो उनका पानी सूख जाता है और ऐसे में भी गिरने वाले को कोई नुक्सान नहीं होता है ,पर कुछ कुएं ऐसे होते है जिमें यदि कोई गिर जाये तो फिर वो चाहे जानवर ही क्यों न हो उसमें डूब कर मर जाता है ,यानि की वो कुआँ अपने श्रोत में गिरने वाले को डूबा देता है । 
मैंने जो भी यहाँ लिखा है इस पर शायद ही किसी को विशवास हो पर यह घटनाएं मेरी खुद की देखी हुई हैं। 
इसीलिए मैंने यहाँ लिखी है । 
हम जहाँ लखनऊ में रहते थे वहां के कईं में बार ऐसी घटना हुई थी ,कभी बकरी,कभी बिल्ली और कभी कुत्ता गिर गए और उस कईं का पानी अचानक से इतना ऊपर आ जाता था कि गिरने वाले जानवर बिना किसी सहायता के बाहर  आ जाते थे। 
एक बार तो एक लड़की ने उस क्यों में छलांग लगाई और तब भी ऐसे ही हुआ। 
ऐसे ही हमारे गांव में एक कुआँ था जिसमें कितने ही जानवर गिर कर मर गए । 


Friday, June 20, 2014

नयी पहचान

अवसाद से घिरी जिंदगी बेवजह जिए यूँ ही जा रही थी मै,

                               बंद जुबान से हांथों को बस हिलाते हुए दिन बिताती जा रही थी मै,
अपनों के बीच खड़े रहने की न थी ताकत हममें ,
                          हर रोज एक नयी उलझनों में उलझी थी जिंदगी ,
कोई अपनी नयी पहचान बनाने को बेताब थी मैं,
             एक रोज किसी अपने ही अज़ीज़ ने  रौशनी की किरण दिखा कर,
                                                              जिंदगी रोशन इस तरह से कि बस क्या कहें ,
माना बहुत छोटा था वो अज़ीज़ मेरा पर जो,
                                                थमा  गया हांथो में में मेरे वो किसी कोहनूर से कम  न था।
वक़्त ऐसा अब बदल गया है दोस्तों ,
                                         तन्हाइयों को भी करना पड़  रहा है इंतज़ार हर पल मेरे लिए
कहीं आंधियों के बीच मेरे मन का अवसाद खो सा गया है ,
                                                   अब तो फुर्सत ही नहीं उलझनों के लिए भी ,
देखते  वो जो अपने ही थे,  ऐसी हेय  नज़रों से ,
                                                  नज़र  उनकी भी अब बदल सी गयी है,

हकीकत से ऐसे भी सामना होगा सोचा न था ,

                                              लोगो को बदलते इस तरह देखना होगा सोचा न था ,
 सूरज के उजाले का मंजर देखते ही रहने को मन करता है
                                         ऐसी खुशनुमा जिंदगी जीने का अब मजा आने लग गया है ॥ 

Thursday, June 19, 2014

हैसियत

समझते हैं जो खुद को ही बस तुर्रम खां ,

                                                   या खुदा उनको भी कुछ अक्ल बख्स दे ,
सामने वाले भी कुछ हैसियत रखते हैं ,

                                               जिन्हें देखते हों वो जिल्ल्त भरी निगाहों से 

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कहते हुए भी शर्म आ रही है उनको अपना कहते,
                                        दूसरों को नीचा दिखाने की चाह में खुद ही गर्त में चले जाते हैं ।
उनको तो अंदाजा भी नहीं है की जिनको ,
                                       वो कुछ नहीं समझते हैं वो दुनिया खुद में मशहूर हुए जा रहे हैं ॥ 

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आज न जाने क्यों उनकी काबिलियत पर हंसने को मन कह रहा है ,
                           जिनको लगता है की हम तो बस यूँ ही जिंदगी जिए  जा रहे हैं ,
नहीं जानते हैं वो हमारे चाहने वालों की लम्बी कतार लगी जा रही है ,
                         कोई ये तो पूछे उनसे जाकर कि इस कतार में वो कहाँ गुम  हुए जा रहे हैं ॥ 

Thursday, June 12, 2014

राहत

बहुत तपा कर सूरज ने अपनी गर्मी से हाल-बेहाल कर दिया था , ,
               कुछ बारिशों की बूंदों ने दिखा कर अपनी झलक से सबको खुश कर दिया है ,
न बरसे झूम कर तो भी क्या थोड़ी तो राहत दिला  ही देगीं ये बूँद बारिशों की
                       एक बार जो बरस जाएणी ये झूम कर तो चाय और पकोड़ों का सिलसिला हो शुरू
दोस्तों संग नहीं तो बचपन की यादों के संग मस्ती भरी शाम बिताने का हो सिलसिला शुरू।
                               लो आज थोड़ी सी राहत दिलाने बूँद बारिशों की आपके आँगन चली ॥    


Thursday, June 5, 2014

जेठ की दोपहर

जेठ की तपती दोपहर है ,
                                                आसमान से आग के शोले बरस रहे हैं ,
हर तरफ सन्नाटा सा दिखता है ,
                                                  दरख्त भी शांत पड़ से गए हैं ,
सूरज पहले भी तो इसी तरह अपनी प्रचंडता,
                                                    दिखाता था जेठ की दोपहर में ,
पर शायद इतना बेचैन न होता था इंसान , ,क्यों?
                                              साधनों की कमी किसी को मौसम के मिजाज परेशान न  करते थे ,
नीम या पकरिया के नीचे दोपहर बिता दिया करते थे लोग ,
                                                  प्रकृति अपने नियमानुसार चल रही है इंसान ही बदल गया है अब
जड़ से काट फेंकता है इंसान ,जो दरख़्त छाँव देते है ,
                                             जल ही जीवन है कहने वाले खुद ही प्रदूषित उन नदियों को कर रहे हैं ,
छतों पर सोने वाले अब कमरों में सिमट से गए हैं ,
                                        शाम को भी तो कोई नज़र नहीं आता है अपने आँगन या बालकनी में ,
टीवी से फुर्सत नहीं है और न ही फुरसत है मोबाइल से ,
                                  वो वक्त भी क्या था जब पानी की बौछारों से ठंडा करते थे अपने आंगनों को
और सजा करती थीं महफिलें ,ताश और चौपड़ के संग
                                                           जाने कहाँ वो दिन चले गए ,जाने कहाँ वो लोग
अब तो बस तपती हुई दोपहर में एक बूँद आस्मां से टपके इसी आस में जिया करते हैं ॥