Thursday, December 17, 2020

यही मैं हूं

गुनगुनी धूप और हाथ में प्याला चाय का,
कल की सोचना और बीती यादों को संजोना मेरा,
बरस कितने बीत गए यूँ ही आरज़ू पूरी करने की चाह में,
आज कुछ अतीत अपना इस तरह से याद आने लगा था,
आँखों के कोर एक बार फिर नम से होने लगे थे,
वो जिसे जन्म लेते ही माँ का आँचल हुआ न नसीब था,
परायों के दामन तले बीता बचपन जिसका था,
वो जिसे हर पल डर, किसी के झिड़कने और डपटने का था,
वो जिसे सपनों को देखने का भी हक़ न था,
कोर से लुढ़कते आंसुओं को पोछने वाला कोई न था,
आह निकले भी तो पूछने वाला कोई न था,
ग़मों की पीने की आदत सी पड़ गयी थी जिसकी,
न किसी को अपना कह सकी,
न पराया किसी को कहने का साहस था,
थे तो सभी अपने ज़माने में, थी बहन भी, भाई भी था,
फिर भी मेरा सीने से लिपटना गंवारा किसी को था,
पढ़ तो रही थी, जानता  मेरी कोई कक्षा भी  न था,
हर रोज़ बस्ता लटका मंद क़दमों से आना मेरा,
खुद ही उठा ग्लास, पानी पीना और ठंडा खाना खा लेना मेरा,
खुद ही कपड़ों को समेटना मेरा, धुले कपड़ों की तह बनाना मेरा,
सर के नीचे दबा प्रेस हो जाने का अहसास कई बार करना मेरा,
फिर भी खुश रहना मेरा, न किसी से गिला न शिकवा किसी से 
 अपनों में गहरी बेगानी सी थी मगर परायों को अपना बनाना मेरा,
सुस्त हो जाती कभी तो खुद ही से पूछ लेना मेरा,
कौन तेरी सुस्ती को गौर करने वाला चल उठ मस्त घूम ले जरा,
 पंछी से हवाओं से बात करना मेरा
हाँ कोई एक तो था जो मुझे दिलो जान से चाहता था,
आज भी मेरे क़दमों में जन्नत लुटा सकता है जो,
कोई और नहीं मुझे पालने वाली वो 
मेरे बचपन को संवारा था और लाड़ मेरा किया था,
उनके पराये होते ही एक बार फिर बिखर मैं गयी थी,
आहिस्ते- आहिस्ते उम्र जवानी की तरफ बढ़ने लगी थी,
उम्र उस दहलीज़ पर भी आ पड़ी थी,
पराया करने को बेताब जब घर वाले हो जाते हैं,
ज़माने के डर से या परम्पराओं में जकड कर,
चल पड़ते हैं ढूंढने एक हाथ थमने वाले को,
काबिल कोई हो तो हाथ पीले करने की चाह में,
परिवार का इधर से उधर भटकना शुरू हुआ था, 
कहाँ में साधारण सी दिखने वाली, कहाँ ज़माने को हूर की तमन्ना,
उहापोह पिता की और भाइयों की, हर रोज़ हेय नज़रों से देखा जाना,
इधर मैं खुद में ही ताने-बाने बुनती खुद को तलाशती रही हर रोज़,
अपने कुछ बना लेने की चाह में हर रोज़ नयी दिशा तलाशना मेरा,
कभी कोई नौकरी की तलाश करना चुपचाप से,
नहीं गंवारा किसी को नौकरी करना मेरी,
फिर ढूंढना कैसा और चाहना कैसा, फिर भी सोचती थी,
हर हुनर में हो जाऊँ पारंगत कुछ इस तरह,
सूरत न सही सीरत ही काम आ जाये मेरी,
फ़िक्र करते-करते एक रोज़ पिता का साया भी उठा सर से मेरे,
अब तो जिंदगी भी बेज़ार सी लगने लगी थी,
एक रोज़ कहीं से न जाने किस्मत का पिटारा ऐसा खुला,
रिश्ता मेरा किसी से जुड़ने की राह भी खुल ही गयी थी,
ऐसा लगा मानों मेरे परिचितों के सर से टल गया कोई बोझा सा था,
पर मन मेरा और भी घबराने लगा था,
मेरी हैसियत से अधिक मिलने जो मुझे जा रहा था,
फिर भी सोचा चलो घर वालों को तो फुरसत मिल ही जाएगी,
दिल में न कोई हसरत थी, न कोई सपने बने मैंने थे,
न कोई खरीदारी, न कोई, जानकारी,
बस बन्ध्ने मैं एक रिश्ते में जा रही थी,
जिसका वजूद न मुझे मालूम, न उसे मालूम,
देखने-दिखाने का सिलसिला भी २-३ बार चला,
पर नहीं वो आया जिससे रिश्ता था जुड़ा मेरा,
आशंकाओं से भरी अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करने मैं चली थी,
दहलीज़ पर जिसके कदम रखा था सपनों को संजोये,
नहीं मालूम था संघर्षों के दलदल में फंसने जा रही थी मैं,
वो जिसके साथ दामन बांध आयी थी,
चाहता मुझको न था, न उसकी थी पसंद,
चुनौतियों का एक दौर फिर से हुआ शुरू था,
माँ- बाप के शौक को पूरा करने के वास्ते,
मेरा हाथ थामे जिंदगी में वो बढ़ चला,
जिंदगी की नयी रात  वो खुद की कहानियाँ सुनाने में व्यस्त था,
नहीं जानता हर शब्द शीशे से घुल रहे थे कानों में मेरे,
हर किस्से को चटकारों के साथ सुनाता जा रहा था इस तरह,
मानों मुझे लिखनी हो कोई रचना उसकी मोहब्बतों पर,
फिर खुद को सम्हाला, तैयार नहीं चुनौतियों के लिए किया,
जानती थी, ये ही डेहरी है जहाँ जीवन बिताना होगा,
नहीं कोई और चारा नज़र आ ही रहा था,
घर अपने आयी तो सबकी नज़रें मुझ पर ही थीं,
ज़ाहिर न होने दिया कुछ था मैंने,
जानती थी सुनेगा नहीं मेरी व्यथा भी कोई,
सबको लगता था राजमहल में ब्याही हूँ,
तो खनक पैसे की सब छिपा ही देगी,
मन में तो था, कोई कह दे हो मुश्किल गर तो,
रह लो यहीं, ज़माने के डर के आगे कौन सुनता मेरी,
माँ का होता आँचल तो भिगो कर करती मन को हल्का,
चन्द रोज़ रह फिर चल पड़ी नयी चुनौतियों को स्वीकारने,
हर रोज़ उलाहना ननदों की, हर पल बदसूरती का ताना,
एक हुक सी उठती और घुमड़ती मन में,
क्या जिंदगी कभी कोई हंसी लम्हा मेरी झोली में भी आएगा,
नित नए कामों में व्यस्त, नित नए तानों से त्रस्त ,
आहिस्ते से हर रात में तनहा बिस्तर पर करवटों का बदलना,
हमसफ़र का महीनों इंतज़ार करना, आना उनका और पलट के सोना .
आहिस्ता ही सही