महाभारत का कलंक उस द्रोपदी के सर सबने मढ़ा था।
उस अग्नि पुत्री द्रोपदी को बांटा गया पांच पांडवों में था,
उस पल द्रोपदी के मन का दर्द जाना किसी ने भी न था ,
जंगलों में भटकती पांडवों संग द्रोपदी के दर्द का जाना किसी ने न था
मामा शकुनि की कुटिल चालों का कुछ गुमान धर्मराज को न था
क्या कुसूर था उस द्रोपदी का था जो हारा उसे जुएं में गया था
केशों से घसीटी गयी निर्वस्त्र करने को बेताब दुशाशन बड़ा था
क्या कसूर द्रोपदी का था ,भरी सभा में वेश्या उसे पुकारा गया था ,
खींचा गया केशों से अपमानित किया गया द्रोपदी को था ,
माना ,दृष्टिहीन थे राजा ध्रितराष्ट्र ,
पर क्या औरों की नजरों में ये कोई अपराध न था
पर क्या औरों की नजरों में ये कोई अपराध न था
देखते सभी रहे थे उस घडी द्रोपदी के दर्द को महसूस किसी ने न किया था ,
पितामह भी तो नज़रें झुकाये मूक दर्शक बने भरी सभी में बैठे रहे थे
माता गंधारी ने तो पहले ही आँखों पर पट्टी बाँध ली थी
द्रोपदी के दर्द को न जाना किसी ने भी न था ,
थक हार अपनी लाज बचाने को
थक हार अपनी लाज बचाने को
श्री नंदन को पुकारा द्रोपदी ने थे ,
आकर श्री कृष्ण ने अपना कर्ज उतार दिया था ,
एक ऊँगली पर बाँधी हुई
एक ऊँगली पर बाँधी हुई
एक चीट का कर्ज यूँ उतारा था,
द्रौपदी के मन का दर्द जाना किसी ने भी न था ॥
द्रौपदी के मन का दर्द जाना किसी ने भी न था ॥
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