लो आज अचानक फिर मौसम ने अंगड़ाई ले ली है ,
जाते -जाते अपने अस्तित्व का अहसास ठण्ड करा रही है ।
सूरज कहीं दूर बादलों में जा कर छिप गया है ,
हवाएं लहराती सी तन को झुरझुरी दिला रहीं हैं ।
मोटी रजाइयें लोगों के बिस्तरों में फिर से जगह बना रही हैं ,
सड़कों किनारे सोते -जागते बेबस इंसानों को कंपकपा रही है ।
जाते -जाते अपने अस्तित्व के होने का अहसास ठण्ड करा रही है ,
देखो तो जरा फिर एक बार तन पर कपड़ों का बोझ लद गया है ।
अदरक वाली चाय फिर एक बार फिर से प्यालों में छन रही है ,
बसंत के बाद भी ठण्ड में ठिठुरने को मजबूर ठण्ड कर रही है ॥
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