अवसाद से घिरी जिंदगी बेवजह जिए यूँ ही जा रही थी मै,
बंद जुबान से हांथों को बस हिलाते हुए दिन बिताती जा रही थी मै,
अपनों के बीच खड़े रहने की न थी ताकत हममें ,
हर रोज एक नयी उलझनों में उलझी थी जिंदगी ,
कोई अपनी नयी पहचान बनाने को बेताब थी मैं,
एक रोज किसी अपने ही अज़ीज़ ने रौशनी की किरण दिखा कर,
जिंदगी रोशन इस तरह से कि बस क्या कहें ,
माना बहुत छोटा था वो अज़ीज़ मेरा पर जो,
थमा गया हांथो में में मेरे वो किसी कोहनूर से कम न था।
वक़्त ऐसा अब बदल गया है दोस्तों ,
तन्हाइयों को भी करना पड़ रहा है इंतज़ार हर पल मेरे लिए
कहीं आंधियों के बीच मेरे मन का अवसाद खो सा गया है ,
अब तो फुर्सत ही नहीं उलझनों के लिए भी ,
देखते वो जो अपने ही थे, ऐसी हेय नज़रों से ,
नज़र उनकी भी अब बदल सी गयी है,
हकीकत से ऐसे भी सामना होगा सोचा न था ,
लोगो को बदलते इस तरह देखना होगा सोचा न था ,
सूरज के उजाले का मंजर देखते ही रहने को मन करता है
ऐसी खुशनुमा जिंदगी जीने का अब मजा आने लग गया है ॥
No comments:
Post a Comment