Thursday, July 14, 2016

खिलखिलाना चाहती हूँ

समझते नहीं दूसरों की तमन्ना, इल्तज़ा उनसे मैं करना चाहती हूँ,
खुले आसमान के नीचे परिंदों की तरह में उड़ना चाहती हूँ,
कुछ दिन बंदिशों से मुक्त होकर खुलकर मुस्कुराना  मैं चाहती हूँ,
दरवाजे की ओट में छिप डराकर खुलकर मैं खिलखिलाना चाहती हूँ,
किसी के साथ बचपन की यादों में मैं फिर एक बार खोना चाहती हूँ,
भीड़ से दूर, अन्धियारे से परे कुछ पल में अकेले ही गुजारना चाहती हूँ,

जी लिया बहुत दूसरों की खातिर, खुद के लिए भी जीना चाहती हूँ,
बच गयी जो उम्र अब है खुद की नज़रों में खुद की पहचान बनाना चाहती हूँ ॥ 

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