एक मुट्ठी चावल बीते चार दिनों से,
छत की मुंडेर पर रखे थे हमने,
कम एक दाना भी न हुआ, मन में बड़ा मलाल इस बात का था,
न जाने कहाँ गुम हो गए हैं चहचहाते वो पक्षियों का टोला,
मौसम की मार में उनकी चहचाहट भी सुन्न सी पड़ रही है,
न दरख्तों पर, न दालानों में, न किसी की छत पर ही ,
अब वो गौरैया कहीं भी नज़र कभी आती है,
घरों की कहलाने वाली वो गौरैया टहनियों पर भी नहीं आती नज़र हैं,
छतों को छोड़िए अब तो दालान भी न रह गए हैं,
आँगन भी बालकनी में बदलने लग गए हैं,
कागा की कांव-कांव भी अब कुछ कम ही सुनाई देने लगी है,
सूखे दरख्तों पर वो गिद्ध भी नज़र आते नहीं हैं,
मृत जीवों को नोचते- खसोटते न कौवे- चील- गिद्ध नहीं दिखते,
दूर देश से आने वाले पक्षियों का कारवां अब कम सा होने लगा है,
तालाबों में इठलाती, पानी में खिलखिलाती बतखें भी नहीं मिलती है,
सिमट रहा है संसार, जीव- जंतु मौसम और प्रदूषण की मार से॥
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