आसमान से उगलते सूरज की तपिश ने,
दरवाजों में बंद कर दिया है लोगों को ।
जाना है जरूरी जिन्हें बाहर वो,
निकल जाते है दिन चढ़ने से पहले ।
गर्मियां तो तब भी आती थीं ,
और तपती थी ये धरती तब भी ।
एक वो भी ज़माना था,
जब घरों में न होते थे पंखे और कूलर ।
न किसी की खिड़की में ए -सी
के डब्बे और कूलर नज़र आते थे ।
खिड़कियों को भी खस के पर्दों से भिगो कर
ठण्ड का अहसास मात्र कर खुश भी उसी में हो जाते थे ।
अक्सर नीम की छाँव में बैठ कर दिन सारा बिता देते
शाम होते घरों के आँगन को ठंडा पानी के छिड़काव से कर लेते ।
याद है मुझे वो दिन भी जब पर्दों को
पानी में भिगो कर खिड़कियों में टांग देते थे ।
और ठण्ड होने का हसीं अहसास यूँ ही कर लेते थे ,
बाजार से लेकर बर्फ के टुकड़े पानी ठंडा कर लेते थे ।
एक ही छत पर मोहल्ले के सारे बैठ गपशप में शाम यूँ ही बिता देते।
कहीं कैरम,कहीं पत्ते खेल शाम को हसीं बना लेते ।
चाय तो दूर सही शरबत भी बमुश्किल पीते थे ,
घड़े के ठन्डे पानी का सोंधापन आज भी याद आता है ।
वक्त बदला छतों में पंखे भी टँगने लगे ,
धीरे-धीरे खिड़कियों में कूलर भी नज़र आने लगे ।
ठन्डे पानी के लिए फ्रिज फिर डबल-डोर फ्रिज,
और अब तो बड़े से बड़े फ्रिज लेन की होड़ लगने लगी है ।
घरों की खिड़कियों में जिनके नहीं ए -सी का डब्बा दिखाई देता,
बड़ी ही हेय नज़रें उनकी खिड़कियों की ओर जाती हैं ।
मगर पूछो कोई उनसे क्या अब वो प्यार नज़र आता है ,
जो छतों पर एक साथ सोने और खेलने में आता था ।
बच्चे भी अब बचपन में ही बड़े होने लग गए है ,
यारों काश ऐसा हो जाये वो दुनिया फिर एक बार लौट आये ।
वक्त ऐसा अब बदल गया है यारों ,
कि अपने ही अपनों से बनाने लगे है दूरी ॥
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