Tuesday, May 1, 2018

याद बाकि है,

हाँ, दिल के कोने में आज भी उस आंगन की याद बाकि है,
आंगन जो घरों के बीच अपनी अलग पहचान रखता था,
आंगन जहाँ महफिलें दोस्तों की जमती थी,
आंगन जहाँ बुजुर्गों का जमावड़ा होता था,
आंगन जहाँ चिड़ियों की चहचआहट गूंजती थी,
किसी के कपडे तो किसी के पापड़ों का सूखना,
किसी कोने में अचार के मर्तबान का रखा होना,
आंगन जहाँ किनारों पर छोटी तुलसी का होना,
याद संस्कारों, रीती रिवाजों की दिलाना,
चिलिचिलाती ठण्ड में धुप सेंकना
थोड़ी सी झूलती ही सही पर खाट पर बैठकर,
मूंगफली तोड़कर खाना,
कोने में छोटी सी क्यारी का होना,
माँ का थाली में चावल का पछोरना ,
बीच आंगन में बैठ कपड़ों को धोना,
सब का अपनी-अपनी जगह के लिए  धौंस जमाना,
कोने में बाबूजी का वो अख़बार की सुर्खियां पढ़ना ,
तखत पर दादाजी की शतरंज की बिसात का बिछना,
हो चाहे गर्मी या बरसात , घरों को घरों से जोड़ता वो आंगन
सिमट कहीं बालकनी में गया वो आंगन,
चटकती धुप के बाद पानी से भिगोना आँगन ,
चारपाइयों के वास्ते लड़ना और झगडना ,
भोर में मखियाँ का भिनभिनाना, चादर से मुंह ढक कर सोना,
जाने कहाँ वो अंगना सिमट गए घरों से,
याद अब भी बहुत आता है वो घर का आंगन,
छोटा ही सही पर याद अब भी आता है वो आंगन। 

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