Tuesday, November 7, 2017

बंद दरवाजों से छनती धूप सी मैं हूँ / Indispire #yourself




 शायद कुछ समय पहले ही इसी विषय से मिलता जुलता विषय Indispire Edition 132   था जिसमें मैंने अपनी भावनाओं को कविता के रूप में प्रस्तुत किया था, आज Indispire Edition 194 #yourself के सन्दर्भ में उसी रचना को जोड़ते हुए खुद की भावनाओ को एक बार फिर  प्रस्तुत कर रही हूँ।

इंसान चाहे कैसा हो कितना ही गरीब हो कितना ही अमीर हो, रंग रूप में कैसा हो, परन्तु हर शख्स की शख्सियत की एक अलग पहचान होती है, इस बात को हमें खुद समझना चाहिए।

                पूछता है मन मेरा हूँ कौन मैं, मन के किसी कोने से छलकती क्या कोई तरंग हूँ मैं,

                                  अपने में ही खुद को तलाशती हुई क्या कोई ग़ज़ल हूँ मैं, 

           सपनों को बुनती हुई मकड़ी की तरह कहीं खुद में ही तो नहीं फंसती जा रही हूँ मैं,

                               एक आवाज़ कहीं दिल के कोनो से आयी, जैसी भी हूँ मैं पर सबसे जुदा हूँ मैं.....




पूर्व रचना :-




जैसी भी हूँ, सबसे जुदा मैं हूँ,
अलग दुनिया में लिखती अपनी दास्तान हूँ,
खुद के बनाये पन्नों में बिखराती अपनी  दुनिया में मशगूल मैं हूँ,
न कोई मुझसे ऊपर, न कोई मुझसे अच्छा,
करती हूँ नाज़ खुद पर हूँ,
अपने मन में,  अपनी ख़ुशी में झूमती नाचती मैं हूँ,
शिकवा करने वालों से दूर रह कर खुशबू खुद की फैलाती मैं हूँ,
बंद दरवाजों से छनती धूप सी मैं हूँ,
ऊषा की किरणों से रक्तिमा फैलाती ख़ुशी की किरण हूँ,
जो दिल कहे मानती मैं हूँ, 
जो दिमाग कहे वो ही करती मैं हूँ,
 न डरना चाहती हूँ,
न डराना चाहती हूँ,
संगीत की थिरकती तरन्नुम मैं हूँ,
किताबों के पन्नों में लिखी  दास्ताँ सी मैं हूँ,
इतिहास बनाना चाहती मैं हूँ,
भविष्य के सपनों में उड़ना चाहती मैं हूँ,
खुद को सबसे आगे मानती हूँ,
हाँ खुद को खुद से ज्यादा जानती मैं हूँ,
जैसी भी हूँ, सबसे जुदा मैं हूँ ॥

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