जेठ की तपती दोपहर है ,
आसमान से आग के शोले बरस रहे हैं ,
हर तरफ सन्नाटा सा दिखता है ,
दरख्त भी शांत पड़ से गए हैं ,
सूरज पहले भी तो इसी तरह अपनी प्रचंडता,
दिखाता था जेठ की दोपहर में ,
पर शायद इतना बेचैन न होता था इंसान , ,क्यों?
साधनों की कमी किसी को मौसम के मिजाज परेशान न करते थे ,
नीम या पकरिया के नीचे दोपहर बिता दिया करते थे लोग ,
प्रकृति अपने नियमानुसार चल रही है इंसान ही बदल गया है अब
जड़ से काट फेंकता है इंसान ,जो दरख़्त छाँव देते है ,
जल ही जीवन है कहने वाले खुद ही प्रदूषित उन नदियों को कर रहे हैं ,
छतों पर सोने वाले अब कमरों में सिमट से गए हैं ,
शाम को भी तो कोई नज़र नहीं आता है अपने आँगन या बालकनी में ,
टीवी से फुर्सत नहीं है और न ही फुरसत है मोबाइल से ,
वो वक्त भी क्या था जब पानी की बौछारों से ठंडा करते थे अपने आंगनों को
और सजा करती थीं महफिलें ,ताश और चौपड़ के संग
जाने कहाँ वो दिन चले गए ,जाने कहाँ वो लोग
अब तो बस तपती हुई दोपहर में एक बूँद आस्मां से टपके इसी आस में जिया करते हैं ॥
Very nice
ReplyDelete